Thursday, July 16, 2015

डोला,पात –पात  हिले \ गोधूली की बेला,रत –दिन मिले \ढलते  रवि की किरने, ऊष्मा रहित  स्वर्णमयी हो फैल रही है असीम आभा से युक्त प्रकाश, संध्या की अगवानी करता प्रतीत हो रहा है \समय चक्र अपनी गति से चलायमान है \साँझ बीती रजनी का आगमन सुनिशिचित हुआ \ दिन में हरी भरी वादियों,चाय बागानों के मध्य,जंगल का बीच बनी हमारी काटेज जितनी सुहानी, मनोरम प्रतीत होती है रात्रि घिरते ही घने अंधकार के साए में छिप गयी \झिगुर व एनी कीट पतंगो व बड़े मच्छरों के समूह गान से वातावरण विचित्र हो रहा था \रात्री की नीरवता में यह स्थान रहस्यमय लग रहा था \ मंयक अभी आकाश में आया नहीं था \ आसमान में छाये बादलो ने  तारा –मण्डल को ढक लिया था \ प्रकाश के अभाव में शयन स्थल पर जाने के अलावा एनी कोई मार्ग नहीं था \ रात्रि को बाहर आने के लिए विशेष साहस को बटोरना पड़ता था  क्योकि गाँव वालो ने जंगली जीव-जन्तुओ के आने की संभावना प्रकट की थी |

                 रैना बीती \चिडियों की चहचहाहट से नीद खुली \वातावरण में शीत का भाव \ प्राची दिशा में लालिमा धीरे –धीरे खिल रही थी \ कुमुदनी अपने पत्र दल पल –पल विकशित करती  जा रही थी \ बाल रवि की किरने हरी भरी बसुन्धरा का कोमल चुम्बन सा करती प्रतीत हो रही थी \ बुग्याल की हरितम घास पर बिखरी ओस की बूंदों से प्रत्यावर्तित प्रकाश ऐसा लग रहा था कि असंख्य मोती धरा पर बिखेर दिए गये हो \ कुछ ही पल बीते थे कि एकाएक एक व्रहद भूरे बादलो का आक्रमण वातावरण पर हो गया \ हर वस्तु अस्पष्ट सी दिखती, चारो ओर ठण्डी धुंध छा गयी \यकायक द्व्श्य परिवर्तन हो गया सम्पूर्ण  जगत एक रंग –मंच है \ हम अपना अपना  रोल निभा रहे है \ द्व्श्य आते है, चल –चित्र की तरह बदल जाते है \यह क्रम यूही चलता था,चल रहा है,चलता रहेगा |       

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